जब इस किताब को पढ़ के समाप्त किया मैं कई घण्टे चुप रहना चाहती थी, एकदम शांत, मौन, अकेले।मैं कुछ महसूस कर रही थी, उसमें में किसी भी प्रकार की बाधा उस समय नहीं चाहती थी। बाहर एक बहुत ही हलचल वाली दुनिया है, पर मेरे अंदर एक अलग ताल, लय और धुन वाली दुनिया चल रही है।एक मौन मेरे अंदर फफूंद की तरह फैलता चला जा रहा है और एक होता है न रेगिस्तान में खड़े होने पर चारों तरफ केवल बालू ही बालू दिखता है वैसे ही चारों तरफ मौन दिख रहा है मुझे, इतना गहन मौन की एक सुई भी गिरे तो वो सुनाई दे।……बस यहीं से शुरू होती है यह किताब, निर्मल वर्मा का लेखन मौन का एक उवाच है, एक ऐसी यात्रा जो आपके मन के अंदर से आरम्भ होती है और आपके मन के अंदर ही विलीन हो जाती है। वो दिखती नहीं बस महसूस होती है इत्र की तरह।
निर्मल वर्मा को पढ़ने की पहली शर्त है एकदम धीमी गति से पढ़ा जाय….।मैंने इसे बहुत धीमे पढ़ा है और ऐसी तमाम लाइनें होंगी जहां मेरा मन अटक कर रह गया।एक बार पढ़ा, दो बार पढ़ा और बारम्बार पढा और मन हुआ आज अब इसे रहने दें…इतना खूबसूरत कुछ पढ़ने के बाद और इससे सुंदर आज पढ़ने की आशा भी एक अपराध है।
पहली कहानी ‘अंतराल’ में एक बीमार मनुष्य के मनोभावों को समझते हुए वे लिखते हैं
“वह करते सबकुछ थे,किंतु हर काम को कहीं आखीरी लम्हे तक आते आते छोड़ देते थे, मानो किसी काम को आखीरी बून्द तक निचोड़ना छिछोरापन हो।वह वाक्य भी पूरा नहीं बोलते थे,उसे पूर्णविराम तक खींचने की अभद्रता उन्होंने कभी नहीं की। मुझे ही उनके आशय का अंतिम सिर पकड़ना पड़ता था, उसे धीरे धीरे अपने पास घसीटना होता था।”
एक दूसरी जगह वो लिखते हैं
“क्या अनबीते की अपनी अलग गन्ध होती है?”
“डॉक्टर जिसे दिलचस्पी कहते थे, वह शायद दिल और दुनिया के बीच की कोई जगह रही होगी, जिसके बारे में मुझे कुछ भी नहीं मालूम था।”
“सब हाँ की नींव पर नहीं खड़े होते-कुछ लोग बीच रास्ते मे ना कर देते हैं, आगे नहीं बढ़ते, एक जगह खड़े रहते हैं, इसमें शिकायत की क्या बात है?वे लोग, जो रेस के घोड़ों की तरह आखीरी सांस तक भागते रहते हैं, उन्हें आखिर में क्या मिल जाता है, जो इनके पास नहीं है?”
मुझे सबसे खूबसूरत कहानी इस किताब में ‘सुखा’ लगी। एक नामी गिरामी लेखक और एक उस अजनबी लड़की का वार्तालाप।दुनिया की भीड़ से अलग होता हुआ , दौलत शोहरत से दूर आखिर उस लेखक को तलाश किस चीज़ की है।वर्षों पहले उन्होंने लिखना छोड़ रखा है। एक जगह वो उस लड़की से कहते हैं,”आप क्या सोचती हैं…सूखा क्या सिर्फ बाहर पड़ता है?” यह लाइन इस कहानी के खत्म होने के दूसरे पन्ने पर है। 56 पन्ने की इस कहानी में उस लेखक की पीड़ा अंत मे फूटती है।इस लाइन को पढ़ते ही मन कचोट जाता है….।बहुत ही उम्दा है यह कहानी।
‘बुखार’ कहानी भी काफी सुंदर है।
मैं इसे एक आध बार और पढ़ना चाहूँगी…..।इस किताब को पढ़ते हुए जो महसूस हुआ वो ये की मौन भी एक स्थायी साथी है इतनी जल्दी वो साथ छोड़कर नहीं जाता, वो परछाई की तरह हमेशा साथ रहता है, जब हम अंधेरे में होते हैं लगता है वो चला गया, पर सच में वो जाता नहीं।
उस मौन के बीच जो भावनाएं हैं उन्हीं को भाषा में उतारने का नाम ही निर्मल वर्मा है।
By- प्रियंका प्रसाद