बहुत दिनों के बाद कोई ऐसी किताब हाथ लगी जो अपने आप को एक ही बैठक में पढ़वा ले।मैं कहूँ की मैंने इस किताब को पढ़ा है ,उससे ज्यादा सही है इस किताब ने अपने आप को मुझसे पढ़वा लिया।
शुरुआती दौर से ही कहानी पाठकों को बांध लेती ही।कहानी की पृष्ठभूमि मध्यमवर्गीय परिवार पर आधारित है, छोटी सी नौकरी, ढ़ेर सारे सपने, बच्चों को अपने पैरों पर खड़ा होते देखने का आनंद, फिर उनकी शादी। बस, न कम न ज्यादा….हर आम घर का मुखिया यही तो सोचता है।
पहले तो इस शीर्षक ने मुझे थोड़ा कन्फ्यूज कर दिया था। ऐसा लगा कोई मजदूर है जिसका नाम रग्घू है जिसने उधार सुधार लिया होगा और अंत में न चुका पाया होगा इसी कारण उसको रेहन पर रखा गया होगा।
पर जब किताब खत्म किया तो पता चला रेहन पर रग्घू को तो रखा गया है पर वो कोई मजदूर थोड़ी हैं, वह तो रघुनाथपुर गाँव के एकमात्र पढ़े लिखे आदमी हैं जो अध्यापक पद पर कार्यरत हैं। विनम्र के साथ साथ रघुनाथ जी मितभाषी हैं।घर परिवार में उनकी पत्नी शीला के अलावा, दो बेटे संजय, धनंजय और उनकी एक बिटिया भी है सरला।संजय और सरला पढ़ने में होशियार हैं। समय समय पर रघुनाथ गांववालों की मदद भी करते हैं, अब ऐसी क्या मुसीबत आ गई कि उनको रेहन पर रहना पड़ा।वो भी खुद कहकर की मुझको रेहन पर रखो। सीधे साधे रघुनाथ जी के साथ ऐसी कौन सी घटना घटी…..यही है कुल कहानी का केंद्रबिंदु।
केंद्रबिंदु तक पढ़ते पढ़ते पहुंचते समय लगा रघुनाथ जी की हालत महाभारत के अभिमन्यु की तरह है, जिन्हें समस्याओं के खोह तक जाने का रास्ता तो मालूम है पर वहाँ तक जाकर निकलेंगे कैसे ये नहीं मालूम।
उफ्फ!फंस गए रघुनाथ जी।अब गलती क्या थी उनकी?सपना ही तो देखा था। जैसा, हर पिता देखता है अपने बच्चों के भविष्य के लिए। सारी शक्ति और पूंजी बच्चों की पढ़ाई में लगा दिया, अपने लिए तो कुछ संचय ही नहीं किया।
अब उनका सपना था संजय सॉफ्टवेयर इंजीनियर बने, वह इंजीनयर तो बना ही और पहुंच गया अमेरिका। अमरीका पहुंचने के लिए उसने अपने सर की एकमात्र सुपुत्री सोनल से विवाह कर लिया। कैरियर के लिए जोड़ , घटाव, गुड़ा ,भाग सब उसे जायज लगा।ऊपर से सोनल के पिता ने जो ग्रेविटेशन का नियम बता दिया था कि पृथ्वी माँ बाप हैं अगर बेटा आगे जाना चाहता है तो माँ बाप उसे अपनी ओर खींचते है।इस नियम का पलड़ा संजय को माँ बाप के संस्कार वाले नियम से संजय पर भारी पड़ा।उसे आगे बढ़ना है, अमीर बनना है।सोनल के सुंदरता की क्षतिपूर्ति के लिए उसका सर्टिफिकेट पर्याप्त था और वैसे भी रंग रूप जैसी चीज तो लड़की में देखी जाती है पत्नी में नहीं।
संजय और सोनल का विवाह हो गया। यहां पर रघुनाथ जी की एक न चली, उनके अपने कलीग की लड़की से संजय के विवाह का सपना धराशायी हो गया। संजय की गलती का खामियाजा रघुनाथ को भुगतना पड़ा।
उन्हें नेगलिजेन्स ऑफ ड्यूटी और इंस्बोर्डिनेशन का नोटिस मिला। वे हताश हो गए। अभी तो उनको सरला का विवाह करना था, छोटे बेटे धनंजय को मैनेजमेंट में एडमिशन दिलाना था। कैसे करेंगे वो ये सब।पहले तो वो बेटी के लिए आई ए एस, आई पी एस दामाद ढूंढ रहे थे, फिर जल्द उनको लगने लगा ये सब उनकी औकात की बाहर की चीज़ है।भरोसा तो अपनी बेटी के रंग रूप और योग्यता पर था पर न कोई पूछनेवाला न देखनेवाला ।जब लगा रेट ज्यादा है फिर थोड़ी हल्की जगह दामाद के तालाश में जुट गए। सरला को अपने ही कालेज के प्रोफेसर से प्यार था जिसकी उम्र 50 साल थी और जिसके दो बच्चे थे। फिर कुछ ऐसी घटना घटी जिससे प्रोफेसर साहब से उसका मन उजाट हो गया और वो प्रेम सम्बन्ध वहीं समाप्त हो गया। वह घर मे मजाक मजाक में कह रखी थी कि उसे घरवलों की मर्जी से शादी नहीं करनी। रघुनाथ जी सोचे ऐसा तो हर लड़की कहती है। उसके मन से बेखबर वो 7 साल तक लड़का ढूंढते रहे।लड़का देखकर लौटते वक्त वो सोचते हैं यह वाला रिश्ता उनकी पत्नी को ठीक लगेगा और यह वाला उनकी बेटी को। छोटा परिवार है लड़की सुखी रहेगी।पर उनकी बेटी को कोई एस टी लड़का पसन्द है। संजय ने पहले ही किसी लाला की लड़की से शादी कर रखी है,पर बाहर रहता है कमाता है तो उसपर ओढ़न तो डाल सकते हैं पर बेटी का क्या करेंगे। वो रिश्ते के लिए मना कर देते हैं। सरला कहती है लड़का पी सी एस है और शादी की कोई शर्त भी नहीं है।पर रघुनाथ जी नहीं मानते हैं।सरला वापस शहर चली जाती है। संजय अपनी शादी के समय कुछ पैसे पिता को भेजता है, उसी पैसे से धनंजय का एडमिशन वो दिल्ली के किसी कॉलेज में करा देते हैं।
अब बच गए घर मे कुल दो प्राणी रघुनाथ और शीला।रधुनाथ जी वॉलंटरी रिटायरमेंट ले चुके होते हैं और पेंशन ऑफिस का चक्कर काट रहे होते हैं कि कब पेंशन चालू हो। गांव में उनकी कुछ जमीन भी है जो उन्होंने किसी बाहरी आदमी को बंटाई पर दे रखी है।माता पिता का हालचाल लेने वाला भी कोई नहीं। घर मे फोन है, इसी चक्कर में लगाया गया था कि कभी संजय को विदेश से फोन करना पड़े, पर कभी किसी का फोन आता जाता नहीं।
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.एक कथन में उनके मन के अंदर रिसता हुवा मवाद भ निकलता है, जहां वो कहते हैं,”शीला हमारे तीन बच्चे हैं लेकिन पता नहीं क्यों कभी कभी मेरे अंदर ऐसी हुँक उठती है जैसे लगता है-मेरी औरत बाँझ है और मैं निः सन्तान पिता हूँ।”
अड़ोसी पड़ोसी बूढ़े लोगों को अकेला जानकर उनकी जमीन हथियाने को सोचते हैं, कभी उनके दुवार पर नाद गाड़ जाते हैं, कभी कहीं दीवाल खड़ी कर देते हैं। वो जानते हैं कितना भी ये मास्टर रहे हों पर आज इनकी तरफ से कोई बोलनेवाला नहीं।
फिर अचानक एकदिन इनकी बहु सोनल का फोन आता है कि वो बनारस लौट आई है और सास ससुर के बिना नहीं रह सकती। इस समस्या के मूल में उसके बनारस अकेले और आस पास होते हुए मर्डर और किडनैपिंग का डर है।
शीला का मन तो जाने के लिए पिघल जाता है पर एक बाप का स्वभिमान उनको जाने से रोकता है। अपनी पत्नी से कहते हैं, सोनल बहु है,लेकिन घर बहु का है, हमारा नहीं।किस हैसियत से जाऊं मैं?मेहमान बन कर?किरायेदार बन कर?किस हैसियत से?”
कहाँ उनका सपना था गाँव मे ही घर बने संजय कुछ पैसे भेजे तो?कहाँ वो बहु के यहाँ रहने जाएं?काफी मनाने बुझाने पर वो जाने को तैयार हो जाते हैं। सास ससुर मोटरी गठरी लेकर बहु के पास चले जाते हैं। कुछ दिन तो सास बहू की बनी फिर शीला अपनी बेटी के पास चली गई।फिर एक दिन अचानक पता चलता है कि उनका छोटा बेटा संजय किसी साउथ इंडियन विधवा के साथ रह रहा है जिसकी एक बेटी भी है। पहला बेटा संजय किसी उद्योगपति की बेटी से दूसरी शादी कर ली है, पहली पत्नी को बिना तलाक दिए। सोनल बहुत रोती है, रघुनाथ भी परेशान होते हैं पर सोनल उनको विश्वास दिलाती है कि वो चाहे जो भी हो आत्महत्या नहीं करेगी। रघुनाथ को लगता है अब वो कहाँ जाए। पहले तो सोनल उनकी बहू थी। अब बेटा ही दूसरी शादी कर लिया है तो उनका क्या?अब तो सब सोनल की मर्जी पर है।चाहे तो रहने दे या निकाल बाहर करे।उनको डर है कहीं सोनल ऐसा न कह दे आप तब तक मेरे ससुर थे जब तक आपका बेटा मेरा पति था। जब आपका बेटा पति ही न रहा तो आप ससुर किस बात के?”गांव अब वो जाना नहीं चाहते थे।पर सोनल से इतने दिनों में ही उनका सम्बन्ध काफी स्नेहिल हो गया था, उसने उन्हें घर से नहीं निकाला। सबकुछ पहले जैसा चलता रहा।
सोनल के घर पर उसका पहला ब्योफ्रेंड समीर आता जाता है तलाक कर बाद जिसे उसने अपने ससुर से कजन कह के मिलवाया था पर रघुनाथ जी धीरे धीरे जान जाते हैं समीर और सोनल के बारे में फिर भी चुपचाप रहते हैं।
एकदिन जब वो अचानक घर मे अकेले होते हैं तो दो गुंडे उनको मारने आते हैं वो कहते हैं मैं तुमको इससे ज्यादा पैसे दिलवा दूंगा जितना मुझको मारने से मिलेंगे। तब गुंडे पूछते हैं कोई छुड़ाने नहीं आया तो। रघुनाथ कहते हैं वही तो देखना है ,कोई छुड़ाने आता है या नहीं????
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.कहानी खत्म होती है और छोड़ जाती है अपने पीछे बहुत से प्रश्न। हालाकिं यह जानने की उत्सुकता बनी रहती है कि रघुनाथ को कोई छुड़ाने आया होगा या नहीं। दोनों बेटों और बेटी को तो पता ही नहीं चला होगा। तो क्या सोनल उनकी भूतपूर्व बहु ने उनको छुड़ाया होगा?
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सब ठीक ही तो चल रहा था, एक मोड़ ही तो आया था कहानी में की संजय ने खुद से शादी कर ली। नहीं किया होता तो क्या होता उनकी पसंद की बहू आई होती समधी के घर मे ही बेटी के लिए दामाद मिल गया होता।7 साल झक न मारना पड़ता, नौकरी पर दाग नहीं लगता।पहले रिटायरमेंट न लेना पड़ता,छोटे बेटे का एडमिशन भी कहीं न कहीं हो ही जाता, पीछे खाली पड़ी जमीन में गाँव मे घर भी बन जाता। और टोनर पेंसन के लिए भी चक्कर नहीं लगाना पड़ता। ऐसा ही होता क्या…….अगर संजय ग्रेविटेशन का नियम न समझ पाता तो।
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इस किताब के लिए सन 2011 में काशीनाथ सिंह जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था।
By- प्रियंका प्रसाद