मेरी समीक्षाएं…
मैंने इस किताब को पढ़ा है यह कहने से ज्यादा मैं यह कहना पसन्द करूंगी मैंने इस किताब को जिया है।बहुत करीब से, ऐसा महसूस हुआ पढ़ते हुए की एक बार गर्दन उठा के देख लिया जाय तो शायद आस पास कहीं कश्मीर दिखाई दे जाए, जिन गलियों का जिक्र है शायद वो हमारे घर की अगली वाली ही गली हो।जिन खुशबुओं की बात हो रही है वो हवाओं में तैर रही है।
रूह एक यात्रा वृतांत है।मानव कौल कश्मीर से हैं, उनके बचपन का एक हिस्सा कश्मीर में बिता था, इस किताब में उन्होंने वहीं का जिक्र किया है।
हम में से कितनों को यह याद होगा बचपन की जो हमारी पहली दोस्त थी अब वो कहाँ है, किस हाल में है?? शहर छूटने के बाद कभी न कभी तो ख्याल आता होगा। बचपन में घरों में चिपकाए गए स्टिकर हर बच्चे को याद रहता है क्या??घर का कोई कोना इतना पसंद होता है कि की छिप्पम छिपाई में वो अपना कोना ही हर बार चुना जाए। वास्तव में ये छोटी छोटी बातें बहुत महत्वपूर्ण तब लगने लगती है जब वो घर छूट जाता है। ये भी कितनी अजीब बात है, घर भी कभी छूटता है, आपको नहीं लगता है छूट कर भी घर मन के अंदर कहीं न कहीं रह जाता है और रह जाती है उन दीवालों, खिड़कियों से झांकती हुई यादें, वे खिड़कियां जिनके दरवाजे किसी गली में नहीं खुलते मन के भीतर खुलते हैं…..
और फिर मन के कैनवास पर लिखने के लिए कितना कुछ फैला पड़ा है।क्या क्या लिखा जाए, कितना कुछ एक किताब में समेटा जाय, कितनी पीडाएं, कितनी वेदनाएं…..लिखने से पहले,कभी इस विषय पर बात की होगी किसी से जिससे अपना दुःख हल्का किया जा सके।
अक्सर जब हम बच्चे होते हैं जाने कितनी घटनाओं को उस तरह देखते हैं जैसे कोई बच्चा किसी पहाड़ी के नीचे रहकर पूरा शहर देखना चाहता हो।पिता पहाड़ की तरह होते हैं वो घटनाओं को ऊपर से देखते हैं उनको वही शहर कुछ और तरिके से दिखता है और जब तक हम बड़े होते हैं और खुद को उस पहाड़ी के जगह पाते हैं पता चलता है पिता सही थे।उस बच्चे को दुःख होता है पर प्रायश्चित करे तो कैसे करे???पिता अब वो इस दुनिया मे ही नहीं हैं….माफी मांगे तो किससे मांगे??क्या चाहते थे पिता… कश्मीर लौटना! पिता तो लौट नहीं पाते पर वो बच्चा कश्मीर जरूर लौटता है।स्पर्श करता है,दरवाजे, खिड़कियां, स्टिकर, भावुक होता है, बचपन की यादें आंखों के आंसू में तैरती हैं फिर लुढ़क जाती है।इतना भावुक है रुक नही पाता पिता से बात करता है और उस फोन कॉल के कुछ मिनट में उसके पिता कश्मीर को महसूस करते हैं। दूसरी बार जब वो बच्चाकश्मीर लौटता हैं उनका घर टूट चुका होता है वहाँ अब कुछ और बनाने की तैयारी हो रही होती है।अब, वह सोचता है काश वो पहली बार कुछ देर और रुक कर देख लिया होता अपने घर को।
इस किताब को पढ़ते हुए कई जगह मन बहुत भावुक हुआ।कोई दुनिया के किसी कोने हो अपनी बोली, अपनी माटी, अपना घर सबको बहुत प्यारा होता है।
कश्मीर छोड़ते वक़्त कोई अपने साथ सर्दियों के कपड़े को भी इतनी शिदत से लाते हैं और वर्षों तक इस उम्मीद में रखे रहते हैं कि एक दिन कश्मीर वापस जाएंगे……..फिर एक दिन वो सारे कपड़े फेंक दिए जाते हैं…..डर इस कदर है हावी हो कि रोशनदान तक घर में न छोड़ी जाय….दरवाजे दीवारों को खूब मजबूत बनाया जाय…फिर अपने आप को उस घर मे कैद कर लिया जाय।
एक जगह मानव कौल लिखते हैं “घर की खुशबू में बहुत बड़ा हिस्सा कश्मीर का है।क्या इन सारी चीजों को दफ्न किया जा सकता है।”
नहीं किया जा सकता बिल्कुल नहीं किया जा सकता….दफन करने का एक ही जरिया है इसपर लिखा जाय, उतारा जाय मन को पन्ने पर।
बहुत ही अच्छी किताब है ।
By- प्रियंका प्रसाद