हिंदी साहित्य में कविता तथा निबंध जैसी विधाओं में अमर कृतियां रचकर प्रसिद्धि पाने वाले रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (Ramdhari Singh ‘Dinkar’) वास्तव में साहित्य के सूर्य थे। वीर रस से भरी उनकी कविताएं आज भी लोगों की भुजाएं वैसे ही फड़का देती हैं, जितना अपने सृजन के समय। उनकी कविताओं की इसी विशेषता ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लोगों को प्राणों का मोह भुलाकर मातृभूमि पर सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए प्रेरित किया था और जब वर्तमान में हम उनकी रचनाएं पढ़ते हैं तो एक बार फिर से अपनी मलिन एवं ओझल होती गरिमा की याद ताज़ा हो जाती है।
दिनकर जी की कलम जितना आग बरसाना जानती थी, उतनी ही कोमल भावों की कोमलता के प्रति भी सहज थी। अगर इसकी एक बानगी देखनी हो तो कुरुक्षेत्र तथा उर्वशी नामक कृतियां पढ़ी जा सकती हैं।
पद्म भूषण पुरस्कार, साहित्य अकादमी, और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सुशोभित दिनकर जी की रचनाएं हर युग में प्रासंगिक रहेगी।
ब्लॉगिंग हॉन्ट् पर हम आज आपके लिए दिनकर जी की वह रचना लाए हैं, जिसे पढ़कर आप भी समय की तुलनात्मक विवेचना कर सकेंगे।
कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
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