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अभिज्ञान शाकुन्तल- कालिदास

अभिज्ञान शाकुन्तल ‘कालिदास‘ के कलम से निकली है, जो संस्कृत साहित्य के एक महान कवि हैं। कालिदास सौंदर्य प्रेमी कवि है। प्रकृति, आकृति सब सुंदरता से परिपूर्ण जो भी सुंदर देखा रच डाला, उनका विषय ही श्रृंगार है और श्रृंगार रस का स्थायी भाव प्रेम है।

अभिज्ञान शाकुन्तल कालिदास के कलम से निकली है, जो संस्कृत साहित्य के एक महान कवि हैं, इस किताब के बारे में कुछ भी लिखना कठिन है। मैंने जो लिखा है वो इस किताब का रिव्यू नहीं है, वो यह है मैंने इसे पढ़ते हुए क्या महसूस किया । एक स्त्री की दृष्टि से इसे कैसा देखा मैंने।

कालिदास ने तीन नाटक लिखे हैं ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’, ‘मालविकाग्निमित्र’ और ‘विक्रमोर्वशीय’।

बहुत लोगों का मानना है कि कालिदास विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में से एक थे। यह कथावस्तु मौलिक नहीं है, यह कथा महाभारत के आदिपर्व से ली गई है, पद्मपुराण में भी शकुन्तला की कथा है। यह कथा हर जगह थोड़ी थोड़ी भिन्न है, महाभारत में दुर्वासा के श्राप का कोई जिक्र नहीं है, पर अभिज्ञान शाकुन्तल में है और इस तरह दुष्यंत के चरित्र को थोड़ा ऊपर उठाया गया है।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि केवल भारत मे ही नहीं विदेश में भी इस रचना को पढ़ने वालों ने बड़ी बारीकी से पढ़ा है और अपना अपना मन्तव्य दिया है। जर्मन कवि गेटे ने इस पर बहुत कुछ लिखा भी है इसके अलावा रवींद्रनाथ ने भी लिखा है “शाकुन्तल का आरंभ सौंदर्य से हुआ है और सौंदर्य की परिणीति मंगल में जाकर हुई है।”

अब आते हैं कथावस्तु पर…

“कागज के दो पंख लगा के उड़ा चला जाय रे….दिशाहरा केमन मन टा रे….” यही है मन ।

कालिदास सौंदर्य प्रेमी कवि है। प्रकृति, आकृति सब सुंदरता से परिपूर्ण जो भी सुंदर देखा रच डाला, उनका विषय ही श्रृंगार है और श्रृंगार रस का स्थायी भाव प्रेम है। सौंदर्य और प्रेम का लगभग साहचर्य है। सौंदर्य प्रेम को जगाता है और प्रेम को और भी सुंदर बनाता है।पर जितना सुंदर यह प्रतीत होता है वास्तव में यह उतना सुंदर भी है क्या, कितना श्रापित रहा है सौंदर्य। सौंदर्य सबको आकर्षित करता है पर इसके मूल में इसका भाव क्या है, किसी को पा लेने की आसक्ति। कमल का पुष्प सुंदर होता है पर यह कमल में खिला हुआ भी तो सुंदर है, जरूरी है मैं इसको अपने हाथों में जबरदस्ती तोड़ के कुछ पल के लिए रख लूं तभी मुझे सौंदर्य से प्रेम है यह माना जाएगा क्या केवल उसे देख कर ही खुश हो जाना प्रेम का सौंदर्यीकरण नहीं। क्या सब कुछ पा लेने की लालसा ही प्रेम है?

नाटक की नायिका शकुन्तला है जो परम् सुंदरी है, वह स्वर्ग की अप्सरा मेनका और विश्वामित्र की पुत्री है। उसकी माँ मेनका स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सराओं में से एक थी और गन्धर्व उर्णयु की पत्नी थी।इंद्र ने विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए मेनका को भेजा था जिसमे वह सफल हुई, उसने एक बेटी को जन्म भी दिया जिसको वो मालिनी नदी के तटपर छोड़कर स्वर्ग चली गई। शकुन पक्षियों ने शकुंतला का पालन पोषण किया इसलिए उसका नाम शकुंतला पड़ा।यह नाम उसे कण्व ऋषि ने दिया था, बाद में वो कण्व ऋषि के आश्रम में रही। यह बात इस किताब में नहीं लिखी गई है पर शकुन्तला के जन्म की कहानी आप पढ़ेंगे तो निस्संदेह उसके किरदार से आपको एक भावनात्मक लगाव रहेगा।(इस घटना का किताब में कहीं जिक्र नहीं है।)

महाराज दुष्यंत हिरण का पीछा करते करते आते हैं और शकुन्तला उन्हें दिखती है।उनके मन में प्रेम जागृत होता है, उससे गन्धर्व विवाह करते हैं। महल लौट आने पर उसको वापस बुला लेने का वादा भी करते हैं और लौट आते हैं। जब गर्भवती शकुन्तला उनके पास जाती है तो वो उसे पहचानने से भी इंकार कर देते हैं। दुर्भाग्यवश जो अंगूठी उसे दिए होते हैं वो खो जाती है और वह इस प्रकार सिद्ध नहीं कर पाती है कि वो वही शकुन्तला है जिससे उन्होंने गन्धर्व विवाह किया था। शकुन्तला दुःखी होती है, बाद में उसकी माँ मेनका उसे ले जाती है। अंत में सब ठीक हो जाता है। दुष्यंत खुशी खुशी शकुन्तला और भरत के साथ लौट आते हैं।

पर जो बात मन में सालती रही वो ये कि प्रेम सौंदर्य से होना चाहिए या किसी को सुंदर प्रेम बनाता है।मेरे ख्याल से प्रेम एक दृष्टि देती है, जब कोई प्रेम में होता है तो स्वयं वो सुंदर दिखने लगता है, संसार मे सबसे अलग।उसके लिए सम्मोहन कोई मंत्र नहीं जिसको सिद्ध कर लिया जाय प्रेम अपने आप मे एक पूर्ण मूलमन्त्र है। करोड़ो लोगों में एक विशेष व्यक्ति विशेष के लिए एक भाव जो मन में जन्म लेता है वही प्रेम है। एक अंगूठी मात्र को दिखाने से कोई भी रिश्ता कैसे सिद्ध हो सकता है?

इति।।

By-  प्रियंका प्रसाद

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