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हिमालय – रामधारी सिंह दिनकर

स्रोत:
स्वतंत्रता पुकारती (Pg. 263)
लेखक: रामधारी सिंह दिनकर

मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

साकार, दिव्य, गौरव विराट्, 

पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल! 

मेरी जननी के हिम-किरीट! 

मेरे भारत के दिव्य भाल! 

मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त, 

युग-युग गर्वोन्नत, नित महान्, 

निस्सीम व्योम में तान रहा 

युग से किस महिमा का वितान? 

कैसी अखंड यह चिर-समाधि? 

यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? 

तू महाशून्य में खोज रहा 

किस जटिल समस्या का निदान? 

उलझन का कैसा विषम जाल? 

मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

ओ, मौन, तपस्या-लीन यती! 

पल भर को तो कर दृगुन्मेष! 

रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल 

है तड़प रहा पद पर स्वदेश। 

सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र, 

गंगा, यमुना की अमिय-धार 

जिस पुण्यभूमि की ओर बही 

तेरी विगलित करुणा उदार, 

जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत 

सीमापति! तूने की पुकार, 

‘पद-दलित इसे करना पीछे 

पहले ले मेरा सिर उतार।’ 

उस पुण्य भूमि पर आज तपी! 

रे, आन पड़ा संकट कराल, 

व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे 

डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल। 

मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

कितनी मणियाँ लुट गयीं? मिटा 

कितना मेरा वैभव अशेष! 

तू ध्यान-मग्न ही रहा; इधर 

वीरान हुआ प्यारा स्वदेश। 

किन द्रौपदियों के बाल खुले? 

किन-किन कलियों का अंत हुआ? 

कह हृदय खोल चित्तौर! यहाँ 

कितने दिन ज्वाल-वसंत हुआ? 

पूछे सिकता-कण से हिमपति! 

तेरा वह राजस्थान कहाँ? 

वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिये 

फिरनेवाला बलवान कहाँ? 

तू पूछ, अवध से, राम कहाँ? 

वृंदा! बोलो, घनश्याम कहाँ? 

ओ मगध! कहाँ मेरे अशोक? 

वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ ? 

पैरों पर ही है पड़ी हुई 

मिथिला भिखारिणी सुकुमारी, 

तू पूछ, कहाँ इसने खोयीं 

अपनी अनंत निधियाँ सारी? 

री कपिलवस्तु! कह, बुद्धदेव 

के वे मंगल-उपदेश कहाँ? 

तिब्बत, इरान, जापान, चीन 

तक गये हुए संदेश कहाँ? 

वैशाली के भग्नावशेष से 

पूछ लिच्छवी-शान कहाँ? 

ओ री उदास गंडकी! बता 

विद्यापति कवि के गान कहाँ? 

तू तरुण देश से पूछ अरे, 

गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग? 

अंबुधि-अंतस्तल-बीच छिपी 

यह सुलग रही है कौन आग? 

प्राची के प्रांगण-बीच देख, 

जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल, 

तू सिंहनाद कर जाग तपी! 

मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, 

जाने दे उनको स्वर्ग धीर, 

पर, फिरा हमें गांडीव-गदा, 

लौटा दे अर्जुन-भीम वीर। 

कह दे शंकर से, आज करें 

वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार। 

सारे भारत में गूँज उठे, 

‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार। 

ले अँगड़ाई, उठ, हिले धरा, 

कर निज विराट् स्वर में निनाद, 

तू शैलराट! हुंकार भरे, 

फट जाय कुहा, भागे प्रमाद। 

तू मौन त्याग, कर सिंहनाद, 

रे तपी! आज तप का न काल। 

नव-युग-शंखध्वनि जगा रही, 

तू जाग, जाग, मेरे विशाल! 

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