मेरी समीक्षाएं…
“परत” को परत दर परत खोल के हर पन्ने को पढ़ा हमने। पढ़ने के दौरान बहुत सारे मिले जुले भाव दिमाग में घूमते रहे। कहीं पेट पकड़ के दम भर हंसा तो कुछ पन्नों पढ़ के मन बहुत उदास भी हुआ। जब किताब खत्म हुई तो लगा इस साल अब तक पढ़े गए किताबों में “परत” सर्वश्रेष्ठ है।
इस किताब में कल्पना कुछ भी नहीं है सब सच्चाई है अपने ठेठ गाँव देहात की सच्चाई ,उस समाज की सच्चाई जहाँ केवल आदर्शवादी बातों का मतलब आदर्शवाद नहीं होता। इस किताब में जो सबसे ज्यादा प्रभावी भाव है वो है प्रेम का भाव।प्रेम क्या समय के साथ इतना निष्ठुर हो जाता है ?प्रेम को समझने के लिए भी मस्तिष्क का परिपक्व होना जरूरी है केवल एकतरफा कर्ण प्रिय बातें सुनकर कोई भी ऐसा निर्णय ले लेना जिससे भविष्य खतरे में आ जाय हित मे नहीं होता । दुनिया में सबसे बड़ी आग पेट की आग होती है अगर पेट में सम्मानजनक रोटी हो प्रेम तभी अच्छा लगता है नहीं तो एक दूसरे को देख के आता है प्रेम के बजाय क्रोध । प्रेम कोई ऐसा पौधा नहीं है जो कहीं भी उग जाए बिना खाद , पानी, हवा के। प्रेम को एक वातावरण की जरूरत होती है, जरूरत होती है उसे माँ, बाप, भाई, बहन, सखी सहेली सबके प्रेम की तभी वह लहलहाता हुआ पीपल का पौधा बन सकता है नहीं तो टूटती है उसकी एक एक डलियां, सूखती है उसकी एक एक पत्तियां और एक दिन बन जाता है ठूंठ की तरह ,खड़ा रहता है अकेले ।
यह किताब केवल एक वर्ग को ध्यान में रख के नहीं लिखा गया है।इसे विद्यार्थी वर्ग को जरूर पढ़ना चाहिये ताकि वो भी जान सकें घर से भाग जानेवाली लड़कियां अपने पीछे क्या क्या छोड़ के जाती हैं और समाज क्या सोचता है उन लड़कियों के बारे में ।जाते जाते वो न जाने कितने दरवाजें अपने लिए हमेशा के लिए बन्द किये जाती हैं जिन्हें समय के साथ भी कोई शक्ति नहीं खोल सकती।
ट्रिग्नोमेट्री वाला झगड़ा जबरदस्त है भैया।साइन कॉश वाला झगड़ा पढ़ के अद्भुत आनंद आया कबो लाइव टेलीकास्ट देखने को मिले तो आनंद दुगुना हो।
जितनी उम्मीदों से यह किताब खरीदी गई थी उससे कहीं ज्यादा है ये किताब।
By- प्रियंका प्रसाद